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उत्तराखंड में पंचायत चुनाव पर रोक! जानिए क्या है वजह और आगे क्या होगा?

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उत्तराखंड की सियासत में बड़ा मोड़ आया है। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव को लेकर चल रही तैयारियों के बीच अब इन चुनावों पर अस्थायी रोक लगा दी गई है। जी हां, जिस चुनाव को लेकर प्रशासन ने ब्लॉक स्तर पर प्रशिक्षण शुरू कर दिए थे, उसमें अब अनिश्चितता का माहौल बन गया है।

ये फैसला उत्तराखंड हाईकोर्ट के एक अहम निर्देश के बाद सामने आया है। दरअसल, कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें पंचायत क्षेत्रों के परिसीमन और आरक्षण सूची को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ता का कहना है कि पंचायत चुनाव के लिए जो आरक्षण सूची जारी की गई है, वो संवैधानिक प्रावधानों और जनसंख्या अनुपात के अनुरूप नहीं है।

कोर्ट ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए सरकार से जवाब मांगा है और तब तक के लिए पंचायत चुनाव प्रक्रिया पर रोक लगा दी है। इसका मतलब ये हुआ कि जब तक कोर्ट में इस मामले की सुनवाई पूरी नहीं हो जाती, तब तक पंचायत चुनाव की कोई प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ेगी।

बात करें जिला और ब्लॉक स्तर की तैयारियों की, तो चुनाव की अधिसूचना से पहले ही प्रशिक्षण शिविरों, मतदाता सूची के पुनरीक्षण, और आरओ-एआरओ की नियुक्ति जैसे कई कदम उठाए जा चुके थे। लेकिन अब इन सभी गतिविधियों को फिलहाल रोक दिया गया है।

ग्रामीण क्षेत्रों में चुनाव की तारीखों का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे लोगों में अब मायूसी की लहर है। कई लोगों ने तो नामांकन की तैयारियाँ भी शुरू कर दी थीं। लेकिन कोर्ट के फैसले ने अब पूरे राज्य में एक तरह से चुनावी गतिविधियों पर ब्रेक लगा दिया है।

सरकार की तरफ से अभी तक इस पर कोई विस्तृत आधिकारिक बयान नहीं आया है, लेकिन सूत्रों की मानें तो राज्य निर्वाचन आयोग जल्द ही कोर्ट के निर्देशों का अध्ययन कर अगली रणनीति तैयार करेगा। अगर आरक्षण सूची में सुधार करना पड़ा, तो इसके लिए समय भी लगेगा और प्रक्रिया दोबारा शुरू करनी होगी।

इस रोक से पंचायत प्रतिनिधियों की नियुक्ति में देरी होगी और गांव स्तर पर विकास योजनाओं का संचालन भी प्रभावित हो सकता है।

तो फिलहाल उत्तराखंड में पंचायत चुनाव ठहर गए हैं, और सबकी निगाहें अब कोर्ट की अगली सुनवाई और सरकार के कदम पर टिकी हैं।

जुड़े रहिए, हम आपको इस मुद्दे पर हर अपडेट सबसे पहले और साफ़ भाषा में पहुंचाते रहेंगे।

अगर आप भी पंचायत चुनाव में रुचि रखते हैं, तो नीचे कमेंट करके बताइए कि क्या आरक्षण सूची में बदलाव जरूरी था? और क्या इससे लोकतंत्र को नुकसान होगा या सुधार?

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